ग़ज़ल
बरस सत्तर गुज़ारे आपके क़दमों में सर रख कर
बग़ावत करना अब आवाम का अधिकार है साहब
तुम्हारी ज़िन्दगी हम जैसों से गुलज़ार है साहब
हमारे दम से ही तो आपकी सरकार है साहब
हमारे दिन भी ख़ाली बर्तनों से रात भी ख़ाली
हमारे वास्ते तो रोज़ ही इतवार है साहब
फटी आँखों से तकते हैं फटे कपड़ों के अंदर सब
हमारी बेटियों की ज़िन्दगी दुश्वार है साहब
फसल सूखी कुँए सूखे हमारे तो हलक़ सूखे
यहाँ तो बस लहू से तरबतर अख़बार है साहब
हमारे नौनिहालों की तरफ़ देखो ज़रा मुड़कर
हँसी में दर्द है इनकी ख़ुशी लाचार है साहब
तुम्हारी भूख के आगे तो सौ हब्शी पशेमाँ हैं
हमारी भूख को दो रोटी की दरकार है साहब
बिठा लेती है सर पे जो भी इसको झुनझुना देता
हमारे मुल्क़ की जनता कहाँ बेदार है साहब
ज़मीने गाँव की सब कैद हैं उसकी तिजोरी में
हमारे गांव का लाला बहुत मक्कार है साहब
बरस सत्तर गुज़ारे आपके क़दमों में सर रख कर
बग़ावत करना अब आवाम का अधिकार है साहब