शुक्रवार, 19 मई 2017

ग़ज़ल

तुम्हारी ज़िन्दगी हम जैसों  से  गुलज़ार  है साहब 
हमारे दम से ही तो आपकी सरकार है साहब 

हमारे दिन भी ख़ाली  बर्तनों से रात भी ख़ाली 
हमारे वास्ते  तो रोज़  ही  इतवार है  साहब 

फटी आँखों से तकते हैं फटे कपड़ों के अंदर सब 
हमारी   बेटियों की   ज़िन्दगी दुश्वार  है साहब 

 फसल सूखी कुँए सूखे हमारे तो हलक़  सूखे 
 यहाँ तो बस लहू से तरबतर अख़बार है साहब 

हमारे नौनिहालों की तरफ़ देखो ज़रा मुड़कर 
हँसी में दर्द है इनकी ख़ुशी लाचार है साहब 

तुम्हारी भूख के आगे तो सौ हब्शी पशेमाँ  हैं 
हमारी भूख को दो रोटी की दरकार है साहब 

बिठा  लेती है सर पे जो भी इसको झुनझुना देता 
हमारे मुल्क़ की जनता कहाँ बेदार है साहब 

ज़मीने  गाँव  की सब कैद हैं उसकी तिजोरी में 
हमारे गांव  का लाला बहुत मक्कार है साहब 

बरस सत्तर गुज़ारे आपके क़दमों में सर रख कर
बग़ावत करना अब आवाम का अधिकार है साहब 
  




            ग़ज़ल

फ़िर शराब पानी थी ग़र  न ग़म  मिले होते 
मयक़दे  न खुल पाते जो न  दिल जले होते

 ढूँढ़ते ही रहते  हमदर्द   ज़िन्दगी भर हम 
 जो ये ज़ख्म हमने अपने न ख़ुद  सिले होते 

फ़ासले से हमको भी तापना जो आ जाता 
 हाथ  ये  तुम्हारे  जैसे न  फ़िर जले  होते 

चंद  ठोकरों  पर  बेबस हैं   पीढ़ियाँ देखो 
जो न सर झुके होते जो न  लब सिले होते 

राज़ी है अगर माली कहना क्या बहारों का 
फूल फ़िर खिज़ाओं में  भी यहाँ  खिले होते 

फ़िर कहाँ क़दर  होती अपनी भी ज़माने में 
भीड़ से जुदा 'निर्मल ' ग़र  न हम चले होते