ग़ज़ल
फ़िर शराब पानी थी ग़र न ग़म मिले होते
मयक़दे न खुल पाते जो न दिल जले होते
ढूँढ़ते ही रहते हमदर्द ज़िन्दगी भर हम
जो ये ज़ख्म हमने अपने न ख़ुद सिले होते
फ़ासले से हमको भी तापना जो आ जाता
हाथ ये तुम्हारे जैसे न फ़िर जले होते
चंद ठोकरों पर बेबस हैं पीढ़ियाँ देखो
जो न सर झुके होते जो न लब सिले होते
राज़ी है अगर माली कहना क्या बहारों का
फूल फ़िर खिज़ाओं में भी यहाँ खिले होते
फ़िर कहाँ क़दर होती अपनी भी ज़माने में
भीड़ से जुदा 'निर्मल ' ग़र न हम चले होते
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