शुक्रवार, 19 मई 2017

            ग़ज़ल

फ़िर शराब पानी थी ग़र  न ग़म  मिले होते 
मयक़दे  न खुल पाते जो न  दिल जले होते

 ढूँढ़ते ही रहते  हमदर्द   ज़िन्दगी भर हम 
 जो ये ज़ख्म हमने अपने न ख़ुद  सिले होते 

फ़ासले से हमको भी तापना जो आ जाता 
 हाथ  ये  तुम्हारे  जैसे न  फ़िर जले  होते 

चंद  ठोकरों  पर  बेबस हैं   पीढ़ियाँ देखो 
जो न सर झुके होते जो न  लब सिले होते 

राज़ी है अगर माली कहना क्या बहारों का 
फूल फ़िर खिज़ाओं में  भी यहाँ  खिले होते 

फ़िर कहाँ क़दर  होती अपनी भी ज़माने में 
भीड़ से जुदा 'निर्मल ' ग़र  न हम चले होते 


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