शनिवार, 21 जनवरी 2017

                       मुक्तक

हर वक़्त   गाडी  कानून की    हाँकता  मिले 
भँवरों का मुँह  समंदर न फ़िर  ताकता  मिले 
बस इतनी सी गुज़ारिश निज़ाम -ए -वतन से है 
अब ज़ख्म आये  मुझको  ना मुआवज़ा मिले 

                 मुक्तक 

सियासत  में  लोग हमको बाँटने   में लग गए 
हम  अपने अपने लोग  छाँटने  में   लग गए 
जाल -ए -नफ़रत इस तरक़ीब से फेंका सय्याद ने 
जाल छोड़ हम एक दुसरे को काटने में लग गए 
                  मुक्तक 

कौन कहता है आइना हरदम सच दिखाता है 
हाथ   बदल जाएँ तो ये  भी बदल जाता है 
खुद देखें तो हम खूबसूरत नज़र आएँ 
कोई  और दिखाए  तो कमिया गिनाता  है 
इस बात का भी मुझको उस बात का भी डर है 
 हाँडी    चढ़ी   हुई    है   बावर्ची   बेख़बर  है 
कहीं भी देख लो दुनिया में सच्ची बात नहीं 
 ज़रा भी याद नहीं  मौत अच्छी बात नहीं 
पैसा भगवान् जैसा दिखता  है 
इसलिए तो ज़मीर बिकता है 
डर के हमने ज़िन्दगी का नाम क़ातिल रख दिया 
नाम उसने भी पलट कर मेरा बुज़दिल रख दिया 
सिर्फ इतना बस किया था ज़िन्दगी खिलने  लगी 
उसके क़दमों से हटाया सर मियाँ दिल रख दिया 

आसमाँ लाख किये जा तू  सियासत अपनी 
फर्श पर आज भी है सोने की आदत अपनी 

मेरी सूरत से   कहीं   अच्छी है   सीरत मेरी 
आजकल ठीक नहीं चल रही हालात अपनी 

देर तक मुल्क़  ये महफूज़ न रह पायेगा 
सिर्फ सेना ही अगर देगी शहादत  अपनी 



कोशिश की जिसने भी ऐक दर्ज़ा वो चढ़ गया 
हारा है फ़िर भी वो ख़ुद से तो आगे बढ़ गया 
मंज़र के बदलने का क्या तकना पथिक रास्ता 
चलने का है मन तो क्या दरकार है मौसम की 
सब बह गयी  नदी पीछे  बस पाट  रह गए
हम जोहते जाने किसकी यहाँ बाट रह गए 

 रंगीन   संत  सब  हो  गए  राज  रंग  में 
बाकी कहाँ वे चित्रकूट के घाट रह  गए 

सोने चला  गया  वो खा पी के पलंग  पर 
बिनते  यहाँ उसूलों की हम खाट रह गए 

सारे चमक दमक पाने को शहर चल दिए 
अब  धूप  बेचते  गाँव  में  हाट  रह गए 

 आया  चुनाव  नेता  सभी  एक हो गए   
 हम बँट के बरहमन तो कहीं जाट रह गए 



शनिवार, 14 जनवरी 2017

जला कर हसरतें  दिल की नज़ारा  कर लिया हमने
क़रार-ए-दिल मिले तुझको ख़सारा कर लिया हमने 

सुकूँ मिलता है जो झुक कर ज़रा  सा झाँक  लेते हैं 
तेरे हर नाज़ को दिल का सितारा कर लिया  हमने 

कि  जलवे  उसके बैसाखी हुए  ऐ   ज़िन्दगी तब तो 
तेरी  राहों में  फ़िर  चलना  गँवारा कर  लिया हमने 

भुला न  पाएंगे  तुझको  मगर फ़िर  भी  ना  रोयेंगे 
तेरे ग़म का  नहीं ख़ुद का  सहारा कर लिया हमने 

शिकस्त-ए -जाँ  भले दे दे लड़ेंगे  ज़िन्दगी  तुझसे 
तेरे हर ज़हर का  'निर्मल' उतारा कर लिया  हमने 



दाँव चलते   रहे   सभी अपना 
मुल्ला पंडित वो पादरी अपना 

है मयस्सर ये मुफ़्त  में लेकिन 
मोल रखती है सादगी  अपना 

वक़्त पर सब मुकर गए पर माँ 
झट से  कंगन  उतारती अपना 

ग़ैर  का तो  नहीं  हो  पाया  है 
खुद का हो जाए आदमी अपना 

दुनिया इस पर अमल करे निर्मल 
पैगाम-ए -फ़र्ज़ आखिरी अपना