हर धर्म आखिर लहर हैं हिन्द नदी के धार की,
इन लहरों को बांटकर ही सबने नैया पार की.
बहुत बंटे न और बंटे खेत दिलो जज्बात के ,
देख खेतो में सिर्फ उगें फसले अब प्यार की.
किस धर्म के संत ने नफरत छोड़ी विरासत मे,
क्या निभायी जिम्मेदारी उस परवरदिगार की.
फूल हैं हम सब फिर क्यूँ खुश नहीं इक बाग मे,
है जरूरत एक ही जब धूप और बयार की।
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सोचता क्या है उठा तलवार और काट दे,
बहुत पहन ली हमने ,बेड़ियाँ भ्रस्टाचार की.
थोड़े से लालच मे परिंदे फँस गए जाल में,
मिलजुल केन उड़भागे तो जय होगी मक्कार की.
very nice nirmal ji..keep it up
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