रविवार, 11 जून 2017

दौलत हवस नशे से तो अनजान ही रहूँ
ओहदा पहन लूँ  फिर भी मैं इंसान ही रहूँ 

होठों  पे आऊँ रुस्वा करूँ  तुझको उम्र भर 
बेहतर है   मैं तेरे  दिल का अरमान ही रहूँ 

बचपन में जैसे हँस के लिपटते थे दोस्त से 
मौला करे की इतना तो नादान  ही रहूँ 

ख़ुद  को ख़ुदा  समझ के सितम कर रहें हैं सब 
मैं रब के सच्चे बन्दे की पहचान ही रहूँ 

निर्मल सुकून-ए -दिल का सबब हो मेरी ग़ज़ल 
सब के लबों पे बन के मैं मुस्कान ही रहूँ 


गुरुवार, 1 जून 2017

महज़ दरिया में गिरने से कभी कोई नहीं डूबा 
वही डूबे हैं जिनको तैरने का फ़न नहीं आता 
                                                   ग़ज़ल

उसके दर तक आ गए देहरी पे जाना बाक़ी  है 
द्वार  पर साँकल  लगी है   खटखटाना बाक़ी है 

 तोड़  कर   सारे  मरासिम लौट आया हूँ   यहाँ 
 दिल में उसके वास्ते नफ़रत  का आना बाक़ी है 

आशियाँ शहरों में कितने ही  बना लेना मगर 
 याद रखना गाँव  में छप्पर पुराना बाक़ी है 

कुछ दिनों तक और शायद  जिस्म में उलझा रहूँ 
कुछ दिनों तक और शायद आब-ओ-दाना बाक़ी है 

बात करता है तो लहज़े से झलकती है वफ़ा 
वार करता है तो लगता है निशाना बाक़ी है 

पास दौलत हो न हो पर सब अदब से मिलते हैं 
दिल में  लोगों के बुज़ुर्गों का ठिकाना बाक़ी है 

उठ के जाते हो कहाँ  फ़ेहरिश्त  लम्बी है ज़रा 
इक फ़साना ख़त्म लेकिन इक फ़साना बाक़ी है

ढेर सारी   धूप  थी आँगन था पूरा  वक़्त था 
आज भी "निर्मल" दिलों में वो ज़माना बाक़ी है