सोमवार, 29 सितंबर 2014

किश्तों में धीरे धीरे सिमटती है ज़िन्दगी,
हर रोज़ एक पन्ना पलटती है ज़िन्दगी।

कुछ वक़्त के लिए हवाले करती मौत के  ,
खुलते ही आँख हमसे लिपटती है ज़िन्दगी।

उड़ने कि तिश्नगी रख खुद देगा  पंख भी ,
पैरों के होते वरना  घिसटती है जिंदगी।

आवाज़ दो बुलाओ न चल दे वो रूठ  कर,
किसके बुलाने पर फ़िर पलटती है जिन्दगी।

पच जाये आसानी से जो उतना खिला  इसे ,
खाया पिया नहीं तो  उलटती  है जिंदगी।






सोमवार, 12 मई 2014

माना  ये  तेरी फितरत ,अब सच्ची नहीं  लगती ,
पर बेरुखी भी ये तेरी ,  अच्छी नहीं लगती।

मंदिर में भजन गूँजे ,मस्जिद में अजाने हों ,
ऐसा न हो तो फिर  बस्ती ,बस्ती नहीं लगती।

अब्दुल मनाये दीवाली ,राम रखे रोज़े,
 गुस्ताखी सियासत को ये अच्छी नहीं लगती।

रफ़्तार ये पैरों की ,एहसान इरादों का ,
कोई भी सड़क हमको अब कच्ची नहीं लगती ।

तुमने नहीँ  देखी ,देखी  है गुलामी हमने,
आज़ादी कभी भी हमको सस्ती नहीं लगती।






रविवार, 20 अप्रैल 2014

किश्तों में धीरे धीरे  सिमटती है ज़िन्दगी,
हर रोज़ एक पन्ना पलटती है ज़िन्दगी। 

कुछ वक़्त शब में सौंप के वो मौत को हमें ,
खुलते ही आँख हमसे लिपटती है ज़िन्दगी। 

उड़ने की चाह है तो  ख़ुदा  देगा पंख भी। 
पैरों के होते वरना  घिसटती है ज़िन्दगी।

आवाज़ दो बुलाओ न चल दे वो रूठ कर ,
किसके  बुलाने भर से  पलटती है ज़िन्दगी।

पच जाये आसानी से जो इतना  खिला इसे ,
खाया पिया नहीं तो  उलटती  है ज़िन्दगी।




मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

बेकार मैं ख़ुशी ढूंढने, दर बदर गया,
सोते मिली, वो आँगन में,  जब अपने घर गया। 

मैं हूँ करीब अब झील के, क्या सुकून है,
जब पास था समंदर, तो प्यासा  ही मर गया। 

हर वक़्त मेरी बेटी, मेरे आस पास थी ,
बेटों के नाम फिर भी, वसीयत मैं कर गया। 

मिल जाए मुझको ये भी, न छूटे कभी  वो भी ,
 सुलतान होने  की धुन में इंसान मर  गया। 

कपडे सफ़ेद ,चेहरा मगर दागदार अब ,
मैले से कपडे, वो साफ़ चेहरा किधर गया। 

ऐसे भी खुश बोहत हम,  थे वैसे भी  खुश बोहत,
रोते मिले सभी आदतन मैं जिधर गया। 

पल भर को रुक न पाये , किसी ठौर पर कभी,
मंज़िल को ढूंढ़ने में  ही, सारा सफ़र गया। 





रविवार, 6 अप्रैल 2014

उसने मेरे माज़ी को बेनक़ाब कर डाला ,
दर्द को मेरे  फिर से लाजवाब कर डाला।

क़र्ज़ उन शहीदों के भारी  थे मगर हमने ,
चंद  तारीखें रट के सब हिसाब कर डाला।

हाथ पैर चलते थे अपने काम करते थे,
खैरातों ने यारों हमको  खराब कर डाला।

कल खुदा  परस्ती मे जाहिलों ने बस्ती मे ,
भोले भाले लोगों को फिर "कसाब"  कर डाला।

मौत से करूंगा तेरी शिकायतें "निर्मल "
दर्द ज़िन्दगी तूने बेहिसाब कर डाला।








शनिवार, 8 मार्च 2014

अपनी जुबां से तेरी नज़र फिर गयी मियाँ ;ghazal

अपनी जुबां से तेरी नज़र फिर गयी मियाँ ,
अहल -ए -नज़र   से मेरी जुबां गिर गयी मियाँ।

 महफूज़ रह सकी न यूँ इज़्ज़त  गरीब की ,
हम तो छुड़ा के लाये मगर  फिर गयी मियाँ।

गिरवी रखी थी हमने तुम्हे पालने  में जो,
वो ज़िन्दगी तुम्हारे ही खातिर गयी मियाँ।

पूछा  जो हमने उनसे कि गैरत कहाँ गयी,
कहने लगे की गरज थी  आखिर गयी मियाँ।

महफ़ूज़  रख न पाये ईमाँ को यूँ देर तक ,
गुण्डों  के बीच  रज़िया मेरी घिर गयी मियाँ।





रविवार, 2 मार्च 2014

किताबें इस लिए कोई ;Ghazal

 किताबें  इस लिए,  कोई  नहीं पढता है इस घर में,
 अगर पढ़ लीं, तो फिर चूल्हा नहीं जलता है इस घर में.

हमारे घर तो सूरज भी हमें पूरा नहीं मिलता,
निकलता है वो उस घर से मगर ढलता  है इस घर में।

तो फिर क्यों राह नौ दिन में अढ़ाई कोस तय की  है,
कि जब सब बारहा कहते हैं "सब चलता है" इस घर में।

 फिरंगी तो बोहत पहले हुए रुखसत ,मगर कह दो ,
 है फिर वो कौन जो अक्सर हमें छलता  है इस घर में।

भरें है घी कनस्तर मे लबालब पर कहाँ निर्मल,
किसी भी शाम तुलसी पर दिया जलता है इस घर में।






शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

जाने इस शहर को अब ये क्या हो गया ;Ghazal

२१२      २१२         २१२        २१२

अब न  जाने बशर को ये क्या हो गया
 बात क्या है कि सबको नशा हो गया

हाथ  अपने   बनाते   रहे आशियाँ  ,
वो तो बातें बना कर खुदा  हो गया।

ना जमीं थी न  जोरू न ज़र बीच में
यार  मुझसे मेरा क्यूँ जुदा  हो गया।

अब मुझे याद अब्बा की आती बहुत ,
जब मेरा  खून मुझसे खफ़ा  हो गया।

कुछ खिलौने नए आज मेले में हैं
जो नया था कभी वो फ़ना हो गया