रविवार, 27 नवंबर 2011

माँ बहन;Nazm



पति महोदय को देख उदास,
नई नवेली दुल्हन पहुंची उनके पास,
बोली क्या बात उन्हें खा रही है
क्या घर वालों कि याद रही है
पति बोला मुझसे दूर होगई हैं मेरी मां और बहन
ये मुझसे नहीं होता है सहन,
पत्नी मुस्कराई  ,धीरे से बुदबुदाई,
बोली  कुछ  दिनों में  हीं सब ठीक कर दूँगी,
बहुत जल्दी आपकी माँ बहन एक कर दूँगी.
 

गाँव में बचपन:Nazm

इन पगडंडियों से होकर मेरे गाँव का रस्ता जाता है,
हम जितना आगे बढ़ते हैं मन उतना तरसता जाता है.

जेठ माह में दिनकर कि भ्रकुटि  जब तन जाती थी,
पोखरों पर बाल सेना नंग धडंग सज आती  थी,
हम आम तोड़ते चोरी से मिश्री चाची चिल्लाती थी,
आँगन के संकरे बिछोने पर भी नींद तुरंत  लग जाती थी,
दो माह गर्मी कि छुट्टी दो पल में कट जाती थी,

मेघों के लड़ने भिड़ने में फिर जून निकल सा जाता है
इन पगडंडियों ......
हम जितना...

सावन में मेघराज जब अंगड़ाई लेकर आते थे,
 नई  ड्रेस पहन   हम स्कूल को  बढ़ जाते थे,
छुट्टी की घंटी के स्वर लहरों में खुशियों की नाव चलाते थे,
तितलियाँ जुगनू के फेरे में घर बार  तक   भूल जाते थे,
आपस की हंसी ठिठोली थी और देर तक बतियाते थे,

गीली लकड़ी सुलगती सिगड़ी  आँख मे पानी सा आ जाता है
इन पगडंडियों ......
हम जितना..

धवल वस्त्र धर कर हम झंडा वंदन को जाते थे,
दो लड्डू वो पंद्रह तारीख के ढेरों खुशियाँ दे जाते थे,
बाबा कंधे बैठ खेतो की सैर भी कर आते थे,
धानी चादर में मोती से धान  लहर लहर लहराते थे,
श्रृंगार धरा का करने को मेघ बरसता जाता है.
इन पगडंडियों ......
हम जितना

मां की उँगलियों में फंसकर उन भी स्वेटर बन जाती थी,
हम हाथ तापते चूल्हे पर और खीर भी पक जाती थी,
घने कोहरे की झीनी चादर गाँव सारा ढक जाती थी,
 और धूप दुपहरी पड़ते  ही धीरे से ढल जाती थी,
अम्मा कहती नहाने को तो जान पर बन आती थी,
इन यादों के अथाह मधुबन से मन महक सा जाता है.
इन पगडंडियों ......
हम जितना

साँस लेना भी हुआ जंजाल तेरे शहर मे:Ghazal



  साँस लेना भी हुआ जंजाल  तेरे   शहर मे,
  हो गयी है अब हवा बदहाल तेरे शहर मे।

 कद जमीं  छूने  लगा अब आदमी का ग़म नहीं
  ऊंचे भवनों का मगर है जाल तेरे शहर मे .

 चूहे बिल्ली  दौड़ मे वहशी हुए सारे यहाँ ,
  भूख पैसे कि बहुत विकराल तेरे शहर में।

  इस कदर रुपया उगलते देखकर  हमने कहा,
  हो गए लाकर सभी   टकसाल  तेरे  शहर मे।
 
   पूजते हैं देवियों  को मारते हैं बेटियां,
   आदमी की खूब मोटी खाल  तेरे शहर मे।

  देखकर चुपचाप सहते मैं चला आया यहाँ ,
  अब सवालों को बनाकर ढाल तेरे शहर मे।

   कहकहे झूठे लगाते खूब सारे  लोग हैं
    हैं बहुत कम अब मगर  खुशहाल तेरे शहर मे .

   झूठ बन बैठा मदारी हाथ में है डुगडुगी ,
    नाचती है अब सदाकत "हाल" तेरे शहर में।

   आँख का पानी नदारद हो गया अब आँख से,
   हाँ मगर हैं खूब सूरत ताल तेरे शहर मे।




देश प्रेम मे Nazm



हर धर्म आखिर लहर हैं हिन्द  नदी के धार की,
इन लहरों को बांटकर ही सबने नैया पार की.

बहुत बंटे न और   बंटे  खेत दिलो जज्बात के ,
देख  खेतो में सिर्फ उगें फसले अब प्यार की.

किस धर्म के  संत ने नफरत छोड़ी विरासत मे,
क्या  निभायी जिम्मेदारी उस परवरदिगार की.

फूल  हैं हम सब  फिर क्यूँ खुश नहीं इक बाग मे,
है जरूरत एक ही जब धूप और बयार की।
.
सोचता क्या है  उठा तलवार और काट दे,
बहुत पहन ली हमने ,बेड़ियाँ भ्रस्टाचार की.

थोड़े से लालच मे  परिंदे फँस गए जाल में,
मिलजुल केन उड़भागे तो जय होगी मक्कार की.

शनिवार, 26 नवंबर 2011

बाबूजी....Nazm

चट से पड़ें  गाल पर   , झट से फिरें  बाल पर
 बाबूजी वो  आपकी   उँगलियाँ  कमाल   थी।
...
 रोते हुए  हँसे  थे , हँसते   हुए   चले   थे,
 बाबूजी वो आपकी  सूक्तियाँ कमाल थी।

बेफिक्र होके  भागते निडर थे वह  रास्ते,
बाबूजी के बांह की ,  मछलियाँ कमाल थी।

तम जब घूरता था,बस उन्ही को  ढूँढता था,
बाबूजी के व्यक्तित्व की  बिजलियाँ कमाल थी।


बातों में इक  कशिश थी सच की सब तपिश थी , 
बाबूजी  के चरित्र की , गर्मियां कमाल थीं। 

वर्जनाऐं  तोड़ती थी रिश्तों को जोड़ती थी,
 बाबूजी वो आपकी चिट्ठियाँ कमाल  थीं।

वो जब भी डांट लगाते ,मुझे गोद में सुलाते ,
बाबूजी वो आपकी थपकियाँ कमाल थी !

छाई  तो रही सदा, पर बरसी यदा कदा ,
बाबूजी के नेह की , बदलियाँ कमाल थी.

बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

कफन ज़िंदगी का:Nazm


सुबह हुई मुसाफिर फिर अपनी राह ले,
कफ़न ज़िंदगी का सर पे बांध ले/

हाथ लगे चंद पत्ते जो ताश के ,
इन्ही को बस  अपनी नियति मान के,
उसूलों के गाँडीव पे हौसलों को  तान के
वीर  अर्जुन सा एकाग्र लक्ष्य ठान के
पुरुषार्थ के अश्व पर होके सवार तू
भय के सभी नदी नालों को फाँद ले।

सुबह हुई मुसाफिर फिर अपनी राह ले
कफन ज़िंदगी का सर पे बांध ले.।

चाँद तक की दूरी वैसे तो अति निर्मम थी
पर एक आदमी की सोच से वो कम थी
इरादों मैं जिसके बिजली की चमचम थी
फिर मंज़िल दूर बस एक दो कदम थी
श्रम के आंच पर लक्ष्य सेंक ले तू
करुणा से धीर के आंटे को साँध ले

सुबह हुई मुसाफिर फिर अपनी राह ले
कफन ज़िंदगी का सर पे बांध ले.।