रविवार, 12 नवंबर 2017

                                                          ग़ज़ल

 इतना हो पाए  मैं कुछ अश्कों को गौहर कर दूँ 
 जो  मिले मुझसे उसे  थोड़ा सा  बेहतर कर  दूँ 

कूच करने आ गए बुज़दिलों को लेकर तुम 
लाव लश्कर ऐसे तो  रोज़ मैं सत्तर कर दूँ

परवरिश मेरी गँवारा ये नहीं  करती है
आपके कहने से इक फ़ूल को नश्तर कर दूँ

चंद शाइर हैं यहाँ ,कहते हैं, तुम बोलो तो
फ़ूल की शाख़, ज़रा देर में ख़ंजर कर दूँ

मक़सद ए शाइरी कुछ भी नहीं बस इतना है 
उसके हर बन्दे को मैं अम्न का लश्कर कर दूँ




शनिवार, 11 नवंबर 2017

                                                                       
                      गीत 

हम पे इतनी कृपा करना भगवन 
देश  के काम आये ये तन मन 
विश्व के हम गुरु थे ,रहेंगे 
देश माटी बने जग का  चंदन। 

ख़ुद को बांधे न रक्खे किलों में 
आओ थोड़ा सा रहले दिलों में 
सम्प्रदायों के फेंके न पासे 
ख़ौफ़ खायें ज़रा तो ख़ुदा  से 
स्वर कान्हा की बंसी  के गूंजे 
हो सवेरा अज़ानों से रौशन। 

हम पे इतनी---------------
देश के काम --------------

आचरण से सिखाएँ सभी को 
बन्दगी से हरायें बदी को 
मन में पाले चलो अब ये आशा 
दूर सदियों का होगा कुहासा 
झूठ की आओ सत्ता हिला दें। 
सच के हक़ में चलों करके अनशन। 

हम पे इतनी---------------
देश के काम -------------

अपनी थाली से आओ निकाले 
दूसरों के लिए भी निवाले 
फ़ूल बनकर सँवारे चमन को 
कर लें मुट्ठी मे आओ  गगन को 
अपने किरदार में वो चमक हो 
अपने चेहरें बने जैसे दर्पण। 

हम पे इतनी---------------
देश के काम --------------

वो सवेरा दिखा दो हमें अब 
मेरे भारतकी  चर्चा करें सब 
एक दिन ये भी होकर रहेगा 
दूध नदियों में फ़िर से बहेगा 
ज्ञान का सूर्य घर में उगायें 
कर दें आओ तिमिर का विसर्जन।

हम पे इतनी---------------
देश के काम --------------





बुधवार, 13 सितंबर 2017

जो तू  समझा   रहा है   मुझे रात से
क्या तू ख़ुद मुतासिर है उसी बात से 

क़दमों में अब ये दस्तार गिरती नहीं 
 समझौता कर लिया मैंने हालात  से 

जश्न कैसा कैसी शादी कैसी दुल्हन 
जब के गायब है दूल्हा ही बारात से 

कैसे  खुल के मिले  बंदिशे हैं बहुत  
ख़ुद  से मज़बूर तू, मै मेरी  ज़ात से 

घर नहीं   देखती  गिरने से पहले ये 
कुछ तो सीखा होगा तुमने  बरसात से 

पैरवी   कौन  करता है  सच की यहाँ 
कौन मज़बूर  है  अपने ज़ज़्बात से





शनिवार, 26 अगस्त 2017

 सिर्फ रोया  कभी हँसा  ही नहीं
 मरने से पहले वो जिया ही नहीं

टाल देता था  जो भी चाहे वो 
मौत का वक़्त तो टला ही नहीं 

तेरी खातिर जियेगा क्या कोई 
तू  किसी के लिए मरा ही नहीं 

अपना घर बस बचा हो, बाक़ी फ़िर 
आजकल ख़ून खौलता ही नहीं 

जैसे सब आये तू भी  आ जाता 
सब गिरे थे ,तू तो उठा ही नहीं 

कितने नादाँ हैं ,जो  ये कहते हैं 
अपने जैसा कोई मिला ही नहीं 

बोलते  हैं  वक़ील अब निर्मल 
अब तो कानून बोलता ही नहीं 

मैं  आफ़ताब ,वो तीरगी देखता  रहा 
मैं  शुक्र और वो , लानतें भेजता रहा 

सब  खेल में तिरे, मेरे ज़ज़्बात साथ  थे 
 पर तू  तो मिरे, ज़ज़्बात से  खेलता रहा 

आगे नहीं  बढ़ा तू  न कुछ भूलने दिया 
ऐ वक़्त तू  मिरे ज़ख्मों को छेड़ता रहा 

होगा गुरूर उसको  यही  इल्म था मुझे 
अब ये खुला कि वो आदतन झेंपता रहा 

कश्ती में उसके पानी, सुराखों से आ रहा 
लेकिन वो बाल्टी से   उसे फेंकता रहा 

मुमकिन नहीं ये, फ़िर भी मिरा जिस्म बख़्श दे 
चौखट पे मौत के ,माथा मै टेकता रहा 






मंगलवार, 18 जुलाई 2017

कायरता की हद तक  कभी  सहना मत सीखो 
इक दायरे में तालाब की तरह बहना मत सीखो 
नर्क है ये घर  तो क्या   राजा हो तुम इसके 
स्वर्ग में बन के दास कभी रहना मत सीखो

रविवार, 11 जून 2017

दौलत हवस नशे से तो अनजान ही रहूँ
ओहदा पहन लूँ  फिर भी मैं इंसान ही रहूँ 

होठों  पे आऊँ रुस्वा करूँ  तुझको उम्र भर 
बेहतर है   मैं तेरे  दिल का अरमान ही रहूँ 

बचपन में जैसे हँस के लिपटते थे दोस्त से 
मौला करे की इतना तो नादान  ही रहूँ 

ख़ुद  को ख़ुदा  समझ के सितम कर रहें हैं सब 
मैं रब के सच्चे बन्दे की पहचान ही रहूँ 

निर्मल सुकून-ए -दिल का सबब हो मेरी ग़ज़ल 
सब के लबों पे बन के मैं मुस्कान ही रहूँ 


गुरुवार, 1 जून 2017

महज़ दरिया में गिरने से कभी कोई नहीं डूबा 
वही डूबे हैं जिनको तैरने का फ़न नहीं आता 
                                                   ग़ज़ल

उसके दर तक आ गए देहरी पे जाना बाक़ी  है 
द्वार  पर साँकल  लगी है   खटखटाना बाक़ी है 

 तोड़  कर   सारे  मरासिम लौट आया हूँ   यहाँ 
 दिल में उसके वास्ते नफ़रत  का आना बाक़ी है 

आशियाँ शहरों में कितने ही  बना लेना मगर 
 याद रखना गाँव  में छप्पर पुराना बाक़ी है 

कुछ दिनों तक और शायद  जिस्म में उलझा रहूँ 
कुछ दिनों तक और शायद आब-ओ-दाना बाक़ी है 

बात करता है तो लहज़े से झलकती है वफ़ा 
वार करता है तो लगता है निशाना बाक़ी है 

पास दौलत हो न हो पर सब अदब से मिलते हैं 
दिल में  लोगों के बुज़ुर्गों का ठिकाना बाक़ी है 

उठ के जाते हो कहाँ  फ़ेहरिश्त  लम्बी है ज़रा 
इक फ़साना ख़त्म लेकिन इक फ़साना बाक़ी है

ढेर सारी   धूप  थी आँगन था पूरा  वक़्त था 
आज भी "निर्मल" दिलों में वो ज़माना बाक़ी है 

शुक्रवार, 19 मई 2017

ग़ज़ल

तुम्हारी ज़िन्दगी हम जैसों  से  गुलज़ार  है साहब 
हमारे दम से ही तो आपकी सरकार है साहब 

हमारे दिन भी ख़ाली  बर्तनों से रात भी ख़ाली 
हमारे वास्ते  तो रोज़  ही  इतवार है  साहब 

फटी आँखों से तकते हैं फटे कपड़ों के अंदर सब 
हमारी   बेटियों की   ज़िन्दगी दुश्वार  है साहब 

 फसल सूखी कुँए सूखे हमारे तो हलक़  सूखे 
 यहाँ तो बस लहू से तरबतर अख़बार है साहब 

हमारे नौनिहालों की तरफ़ देखो ज़रा मुड़कर 
हँसी में दर्द है इनकी ख़ुशी लाचार है साहब 

तुम्हारी भूख के आगे तो सौ हब्शी पशेमाँ  हैं 
हमारी भूख को दो रोटी की दरकार है साहब 

बिठा  लेती है सर पे जो भी इसको झुनझुना देता 
हमारे मुल्क़ की जनता कहाँ बेदार है साहब 

ज़मीने  गाँव  की सब कैद हैं उसकी तिजोरी में 
हमारे गांव  का लाला बहुत मक्कार है साहब 

बरस सत्तर गुज़ारे आपके क़दमों में सर रख कर
बग़ावत करना अब आवाम का अधिकार है साहब 
  




            ग़ज़ल

फ़िर शराब पानी थी ग़र  न ग़म  मिले होते 
मयक़दे  न खुल पाते जो न  दिल जले होते

 ढूँढ़ते ही रहते  हमदर्द   ज़िन्दगी भर हम 
 जो ये ज़ख्म हमने अपने न ख़ुद  सिले होते 

फ़ासले से हमको भी तापना जो आ जाता 
 हाथ  ये  तुम्हारे  जैसे न  फ़िर जले  होते 

चंद  ठोकरों  पर  बेबस हैं   पीढ़ियाँ देखो 
जो न सर झुके होते जो न  लब सिले होते 

राज़ी है अगर माली कहना क्या बहारों का 
फूल फ़िर खिज़ाओं में  भी यहाँ  खिले होते 

फ़िर कहाँ क़दर  होती अपनी भी ज़माने में 
भीड़ से जुदा 'निर्मल ' ग़र  न हम चले होते 


शनिवार, 21 जनवरी 2017

                       मुक्तक

हर वक़्त   गाडी  कानून की    हाँकता  मिले 
भँवरों का मुँह  समंदर न फ़िर  ताकता  मिले 
बस इतनी सी गुज़ारिश निज़ाम -ए -वतन से है 
अब ज़ख्म आये  मुझको  ना मुआवज़ा मिले 

                 मुक्तक 

सियासत  में  लोग हमको बाँटने   में लग गए 
हम  अपने अपने लोग  छाँटने  में   लग गए 
जाल -ए -नफ़रत इस तरक़ीब से फेंका सय्याद ने 
जाल छोड़ हम एक दुसरे को काटने में लग गए 
                  मुक्तक 

कौन कहता है आइना हरदम सच दिखाता है 
हाथ   बदल जाएँ तो ये  भी बदल जाता है 
खुद देखें तो हम खूबसूरत नज़र आएँ 
कोई  और दिखाए  तो कमिया गिनाता  है 
इस बात का भी मुझको उस बात का भी डर है 
 हाँडी    चढ़ी   हुई    है   बावर्ची   बेख़बर  है 
कहीं भी देख लो दुनिया में सच्ची बात नहीं 
 ज़रा भी याद नहीं  मौत अच्छी बात नहीं 
पैसा भगवान् जैसा दिखता  है 
इसलिए तो ज़मीर बिकता है 
डर के हमने ज़िन्दगी का नाम क़ातिल रख दिया 
नाम उसने भी पलट कर मेरा बुज़दिल रख दिया 
सिर्फ इतना बस किया था ज़िन्दगी खिलने  लगी 
उसके क़दमों से हटाया सर मियाँ दिल रख दिया 

आसमाँ लाख किये जा तू  सियासत अपनी 
फर्श पर आज भी है सोने की आदत अपनी 

मेरी सूरत से   कहीं   अच्छी है   सीरत मेरी 
आजकल ठीक नहीं चल रही हालात अपनी 

देर तक मुल्क़  ये महफूज़ न रह पायेगा 
सिर्फ सेना ही अगर देगी शहादत  अपनी 



कोशिश की जिसने भी ऐक दर्ज़ा वो चढ़ गया 
हारा है फ़िर भी वो ख़ुद से तो आगे बढ़ गया 
मंज़र के बदलने का क्या तकना पथिक रास्ता 
चलने का है मन तो क्या दरकार है मौसम की 
सब बह गयी  नदी पीछे  बस पाट  रह गए
हम जोहते जाने किसकी यहाँ बाट रह गए 

 रंगीन   संत  सब  हो  गए  राज  रंग  में 
बाकी कहाँ वे चित्रकूट के घाट रह  गए 

सोने चला  गया  वो खा पी के पलंग  पर 
बिनते  यहाँ उसूलों की हम खाट रह गए 

सारे चमक दमक पाने को शहर चल दिए 
अब  धूप  बेचते  गाँव  में  हाट  रह गए 

 आया  चुनाव  नेता  सभी  एक हो गए   
 हम बँट के बरहमन तो कहीं जाट रह गए 



शनिवार, 14 जनवरी 2017

जला कर हसरतें  दिल की नज़ारा  कर लिया हमने
क़रार-ए-दिल मिले तुझको ख़सारा कर लिया हमने 

सुकूँ मिलता है जो झुक कर ज़रा  सा झाँक  लेते हैं 
तेरे हर नाज़ को दिल का सितारा कर लिया  हमने 

कि  जलवे  उसके बैसाखी हुए  ऐ   ज़िन्दगी तब तो 
तेरी  राहों में  फ़िर  चलना  गँवारा कर  लिया हमने 

भुला न  पाएंगे  तुझको  मगर फ़िर  भी  ना  रोयेंगे 
तेरे ग़म का  नहीं ख़ुद का  सहारा कर लिया हमने 

शिकस्त-ए -जाँ  भले दे दे लड़ेंगे  ज़िन्दगी  तुझसे 
तेरे हर ज़हर का  'निर्मल' उतारा कर लिया  हमने 



दाँव चलते   रहे   सभी अपना 
मुल्ला पंडित वो पादरी अपना 

है मयस्सर ये मुफ़्त  में लेकिन 
मोल रखती है सादगी  अपना 

वक़्त पर सब मुकर गए पर माँ 
झट से  कंगन  उतारती अपना 

ग़ैर  का तो  नहीं  हो  पाया  है 
खुद का हो जाए आदमी अपना 

दुनिया इस पर अमल करे निर्मल 
पैगाम-ए -फ़र्ज़ आखिरी अपना