ग़ज़ल
इतना हो पाए मैं कुछ अश्कों को गौहर कर दूँ
जो मिले मुझसे उसे थोड़ा सा बेहतर कर दूँ
कूच करने आ गए बुज़दिलों को लेकर तुम
लाव लश्कर ऐसे तो रोज़ मैं सत्तर कर दूँ
परवरिश मेरी गँवारा ये नहीं करती है
आपके कहने से इक फ़ूल को नश्तर कर दूँ
चंद शाइर हैं यहाँ ,कहते हैं, तुम बोलो तो
फ़ूल की शाख़, ज़रा देर में ख़ंजर कर दूँ
मक़सद ए शाइरी कुछ भी नहीं बस इतना है
परवरिश मेरी गँवारा ये नहीं करती है
आपके कहने से इक फ़ूल को नश्तर कर दूँ
चंद शाइर हैं यहाँ ,कहते हैं, तुम बोलो तो
फ़ूल की शाख़, ज़रा देर में ख़ंजर कर दूँ
मक़सद ए शाइरी कुछ भी नहीं बस इतना है
उसके हर बन्दे को मैं अम्न का लश्कर कर दूँ
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