कर रहे हो तुम मोहब्बत,कितनी फुर्सत से मियाँ
तुमको मिलती क्यों नहीं, फुर्सत मोहब्बत से मियाँ
इक दफा देखो मुहब्बत से हिक़ारत की तरफ़
बाज़ आते क्यों नहीं हो अपनी आदत से मियाँ
अंध आलोचक नहीं हूँ,अंध प्रशंशक भी नहीं
मैं परखता हूँ हवा को अपनी ताक़त से मियाँ
तुम चिरागे इल्म हो तुम बस उजाले बांटना
देखती हैं तुमको नस्लें कितनी हसरत से मियाँ
सिर्फ कमियां ही दिखाई देती है तुमको अगर
अल्पज्ञानी हो या हो खुदगर्ज़ आदत से मियाँ
चाँद ग़ज़लों के सिवा हमने दिया क्या है मगर
लोग लेते हैं हमारा नाम इज़्ज़त से मियाँ
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
post your comments