मज़हब के इतने तंग कूचे, घेरे में आया नहीं
दरवेश घूमा दुनिया में , कूचे में आया नहीं
जिस्मों को पहना रूह ने ,कुछ पल का है ये पैरहन
गीता ने कितना समझाया तू कहने में आया नहीं
इतना कमाया फिर भी जब देने की सोचा कम पड़ा
भरते रहे बस पेट अपना देने में आया नहीं
हिलडुल रही थी लाश बन ,कहती रही मैं ज़िंदा हूँ
कटती रही बस ज़िन्दगी यूँ ,जीने में आया नहीं
पाया ये तो वो छूटा,शिद्दत से पकड़ना चाहा पर
किस्मत में जितना था मिला ,सब खीसे में आया नहीं