रविवार, 15 जुलाई 2018


                              मुक्तक 

मुबारक़ दौलतें तुमको हुक़ूमत भी मुबारक़ हो 
हमारा तो अलग लहजा अलग रोना है दुनिया से 
हमेशा के लिए रहना है बन के नूर आँखों में 
सिकंदर की तरह रुख़सत नहीं होना है दुनिया से 



                                                       ग़ज़ल

वो ही मेरी बेदारी को सलाम करतें हैं
जिनकी ठोकरों का हम एहतेराम करते हैं

दिन का क्या है कट जाता है उनकी यादों में
हम मुशायरों में रातें तमाम करते है 
कलियों की किलकारी भी है फ़ूलों का मुरझाना भी
पाना है सब कुछ यहाँ ,पर छोड़ सब कुछ जाना भी 

उम्र की धारा में बस इक सिम्त बहते जाना है 
मरते मरते जीना भी है ,जीते जी मर जाना भी 

चाहतें ख़ैरात में मिलती नहीं हैं दोस्तों
धूप में थकना है तुमको ,धूप में सुस्ताना भी 

लेना देना साथ चलता बाक़ी कुछ रहता नहीं 
साँस का आना है हर पल ,अगले पल फ़िर जाना भी 

ख्वाइशों की क़ीमतें देते चले जाना यहाँ 
माटी की क़ीमत में इक दिन फ़िर यहॉँ बिक जाना भी 

आपको दुनियाँ में  गर रहना है 'निर्मल' तो सुनो 
झीने रिश्ते सिलना भी है ,रिश्ते कुछ झुठलाना  भी 
                                           
                                                    ग़ज़ल

नींद आँखों में कहो तब  किस तरह पल भर रहे
 वो तुम्हारी याद और हम  जब भी  हमबिस्तर रहे

बस  उसी वादे कि   ख़ातिर जो  तुम्हारे साथ  था
हाथ छोड़ा तुमने ,फ़िर भी उम्र भर हँस कर रहे

जब  हमारे गाँव में अहले सियासत आये थे
कुछ दिनों तक दहशत औ ख़ौफ़ के मंज़र रहे

 लेखनी के लेख को, सच माना तुमने इसलिए
 तुम  कहानी के सभी किरदार में, कमतर रहे

 आपके रौशन  इरादों के मुक़ाबिल कुछ नहीं
  आप जाने कौन सी मजबूरी से दब कर रहे

आपकी, दुश्वारियों से दुश्मनी बढ़ती रहे
आपके क़दमों में 'निर्मल' दुश्मनों का सर रहे