शनिवार, 8 मार्च 2014

अपनी जुबां से तेरी नज़र फिर गयी मियाँ ;ghazal

अपनी जुबां से तेरी नज़र फिर गयी मियाँ ,
अहल -ए -नज़र   से मेरी जुबां गिर गयी मियाँ।

 महफूज़ रह सकी न यूँ इज़्ज़त  गरीब की ,
हम तो छुड़ा के लाये मगर  फिर गयी मियाँ।

गिरवी रखी थी हमने तुम्हे पालने  में जो,
वो ज़िन्दगी तुम्हारे ही खातिर गयी मियाँ।

पूछा  जो हमने उनसे कि गैरत कहाँ गयी,
कहने लगे की गरज थी  आखिर गयी मियाँ।

महफ़ूज़  रख न पाये ईमाँ को यूँ देर तक ,
गुण्डों  के बीच  रज़िया मेरी घिर गयी मियाँ।





रविवार, 2 मार्च 2014

किताबें इस लिए कोई ;Ghazal

 किताबें  इस लिए,  कोई  नहीं पढता है इस घर में,
 अगर पढ़ लीं, तो फिर चूल्हा नहीं जलता है इस घर में.

हमारे घर तो सूरज भी हमें पूरा नहीं मिलता,
निकलता है वो उस घर से मगर ढलता  है इस घर में।

तो फिर क्यों राह नौ दिन में अढ़ाई कोस तय की  है,
कि जब सब बारहा कहते हैं "सब चलता है" इस घर में।

 फिरंगी तो बोहत पहले हुए रुखसत ,मगर कह दो ,
 है फिर वो कौन जो अक्सर हमें छलता  है इस घर में।

भरें है घी कनस्तर मे लबालब पर कहाँ निर्मल,
किसी भी शाम तुलसी पर दिया जलता है इस घर में।