रविवार, 11 जून 2017

दौलत हवस नशे से तो अनजान ही रहूँ
ओहदा पहन लूँ  फिर भी मैं इंसान ही रहूँ 

होठों  पे आऊँ रुस्वा करूँ  तुझको उम्र भर 
बेहतर है   मैं तेरे  दिल का अरमान ही रहूँ 

बचपन में जैसे हँस के लिपटते थे दोस्त से 
मौला करे की इतना तो नादान  ही रहूँ 

ख़ुद  को ख़ुदा  समझ के सितम कर रहें हैं सब 
मैं रब के सच्चे बन्दे की पहचान ही रहूँ 

निर्मल सुकून-ए -दिल का सबब हो मेरी ग़ज़ल 
सब के लबों पे बन के मैं मुस्कान ही रहूँ 


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