ग़ज़ल
उसके दर तक आ गए देहरी पे जाना बाक़ी है
द्वार पर साँकल लगी है खटखटाना बाक़ी है
तोड़ कर सारे मरासिम लौट आया हूँ यहाँ
दिल में उसके वास्ते नफ़रत का आना बाक़ी है
आशियाँ शहरों में कितने ही बना लेना मगर
याद रखना गाँव में छप्पर पुराना बाक़ी है
कुछ दिनों तक और शायद जिस्म में उलझा रहूँ
कुछ दिनों तक और शायद आब-ओ-दाना बाक़ी है
बात करता है तो लहज़े से झलकती है वफ़ा
वार करता है तो लगता है निशाना बाक़ी है
पास दौलत हो न हो पर सब अदब से मिलते हैं
दिल में लोगों के बुज़ुर्गों का ठिकाना बाक़ी है
उठ के जाते हो कहाँ फ़ेहरिश्त लम्बी है ज़रा
इक फ़साना ख़त्म लेकिन इक फ़साना बाक़ी है
ढेर सारी धूप थी आँगन था पूरा वक़्त था
आज भी "निर्मल" दिलों में वो ज़माना बाक़ी है
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
post your comments