मैं आफ़ताब ,वो तीरगी देखता रहा
मैं शुक्र और वो , लानतें भेजता रहा
सब खेल में तिरे, मेरे ज़ज़्बात साथ थे
पर तू तो मिरे, ज़ज़्बात से खेलता रहा
आगे नहीं बढ़ा तू न कुछ भूलने दिया
ऐ वक़्त तू मिरे ज़ख्मों को छेड़ता रहा
होगा गुरूर उसको यही इल्म था मुझे
अब ये खुला कि वो आदतन झेंपता रहा
कश्ती में उसके पानी, सुराखों से आ रहा
लेकिन वो बाल्टी से उसे फेंकता रहा
मुमकिन नहीं ये, फ़िर भी मिरा जिस्म बख़्श दे
चौखट पे मौत के ,माथा मै टेकता रहा
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