रविवार, 20 अप्रैल 2014

किश्तों में धीरे धीरे  सिमटती है ज़िन्दगी,
हर रोज़ एक पन्ना पलटती है ज़िन्दगी। 

कुछ वक़्त शब में सौंप के वो मौत को हमें ,
खुलते ही आँख हमसे लिपटती है ज़िन्दगी। 

उड़ने की चाह है तो  ख़ुदा  देगा पंख भी। 
पैरों के होते वरना  घिसटती है ज़िन्दगी।

आवाज़ दो बुलाओ न चल दे वो रूठ कर ,
किसके  बुलाने भर से  पलटती है ज़िन्दगी।

पच जाये आसानी से जो इतना  खिला इसे ,
खाया पिया नहीं तो  उलटती  है ज़िन्दगी।




मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

बेकार मैं ख़ुशी ढूंढने, दर बदर गया,
सोते मिली, वो आँगन में,  जब अपने घर गया। 

मैं हूँ करीब अब झील के, क्या सुकून है,
जब पास था समंदर, तो प्यासा  ही मर गया। 

हर वक़्त मेरी बेटी, मेरे आस पास थी ,
बेटों के नाम फिर भी, वसीयत मैं कर गया। 

मिल जाए मुझको ये भी, न छूटे कभी  वो भी ,
 सुलतान होने  की धुन में इंसान मर  गया। 

कपडे सफ़ेद ,चेहरा मगर दागदार अब ,
मैले से कपडे, वो साफ़ चेहरा किधर गया। 

ऐसे भी खुश बोहत हम,  थे वैसे भी  खुश बोहत,
रोते मिले सभी आदतन मैं जिधर गया। 

पल भर को रुक न पाये , किसी ठौर पर कभी,
मंज़िल को ढूंढ़ने में  ही, सारा सफ़र गया। 





रविवार, 6 अप्रैल 2014

उसने मेरे माज़ी को बेनक़ाब कर डाला ,
दर्द को मेरे  फिर से लाजवाब कर डाला।

क़र्ज़ उन शहीदों के भारी  थे मगर हमने ,
चंद  तारीखें रट के सब हिसाब कर डाला।

हाथ पैर चलते थे अपने काम करते थे,
खैरातों ने यारों हमको  खराब कर डाला।

कल खुदा  परस्ती मे जाहिलों ने बस्ती मे ,
भोले भाले लोगों को फिर "कसाब"  कर डाला।

मौत से करूंगा तेरी शिकायतें "निर्मल "
दर्द ज़िन्दगी तूने बेहिसाब कर डाला।