रविवार, 20 अप्रैल 2014

किश्तों में धीरे धीरे  सिमटती है ज़िन्दगी,
हर रोज़ एक पन्ना पलटती है ज़िन्दगी। 

कुछ वक़्त शब में सौंप के वो मौत को हमें ,
खुलते ही आँख हमसे लिपटती है ज़िन्दगी। 

उड़ने की चाह है तो  ख़ुदा  देगा पंख भी। 
पैरों के होते वरना  घिसटती है ज़िन्दगी।

आवाज़ दो बुलाओ न चल दे वो रूठ कर ,
किसके  बुलाने भर से  पलटती है ज़िन्दगी।

पच जाये आसानी से जो इतना  खिला इसे ,
खाया पिया नहीं तो  उलटती  है ज़िन्दगी।




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