मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

बेकार मैं ख़ुशी ढूंढने, दर बदर गया,
सोते मिली, वो आँगन में,  जब अपने घर गया। 

मैं हूँ करीब अब झील के, क्या सुकून है,
जब पास था समंदर, तो प्यासा  ही मर गया। 

हर वक़्त मेरी बेटी, मेरे आस पास थी ,
बेटों के नाम फिर भी, वसीयत मैं कर गया। 

मिल जाए मुझको ये भी, न छूटे कभी  वो भी ,
 सुलतान होने  की धुन में इंसान मर  गया। 

कपडे सफ़ेद ,चेहरा मगर दागदार अब ,
मैले से कपडे, वो साफ़ चेहरा किधर गया। 

ऐसे भी खुश बोहत हम,  थे वैसे भी  खुश बोहत,
रोते मिले सभी आदतन मैं जिधर गया। 

पल भर को रुक न पाये , किसी ठौर पर कभी,
मंज़िल को ढूंढ़ने में  ही, सारा सफ़र गया। 





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