माना ये तेरी फितरत ,अब सच्ची नहीं लगती ,
पर बेरुखी भी ये तेरी , अच्छी नहीं लगती।
मंदिर में भजन गूँजे ,मस्जिद में अजाने हों ,
ऐसा न हो तो फिर बस्ती ,बस्ती नहीं लगती।
अब्दुल मनाये दीवाली ,राम रखे रोज़े,
गुस्ताखी सियासत को ये अच्छी नहीं लगती।
रफ़्तार ये पैरों की ,एहसान इरादों का ,
कोई भी सड़क हमको अब कच्ची नहीं लगती ।
तुमने नहीँ देखी ,देखी है गुलामी हमने,
आज़ादी कभी भी हमको सस्ती नहीं लगती।
पर बेरुखी भी ये तेरी , अच्छी नहीं लगती।
मंदिर में भजन गूँजे ,मस्जिद में अजाने हों ,
ऐसा न हो तो फिर बस्ती ,बस्ती नहीं लगती।
अब्दुल मनाये दीवाली ,राम रखे रोज़े,
गुस्ताखी सियासत को ये अच्छी नहीं लगती।
रफ़्तार ये पैरों की ,एहसान इरादों का ,
कोई भी सड़क हमको अब कच्ची नहीं लगती ।
तुमने नहीँ देखी ,देखी है गुलामी हमने,
आज़ादी कभी भी हमको सस्ती नहीं लगती।
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