सोमवार, 12 मई 2014

माना  ये  तेरी फितरत ,अब सच्ची नहीं  लगती ,
पर बेरुखी भी ये तेरी ,  अच्छी नहीं लगती।

मंदिर में भजन गूँजे ,मस्जिद में अजाने हों ,
ऐसा न हो तो फिर  बस्ती ,बस्ती नहीं लगती।

अब्दुल मनाये दीवाली ,राम रखे रोज़े,
 गुस्ताखी सियासत को ये अच्छी नहीं लगती।

रफ़्तार ये पैरों की ,एहसान इरादों का ,
कोई भी सड़क हमको अब कच्ची नहीं लगती ।

तुमने नहीँ  देखी ,देखी  है गुलामी हमने,
आज़ादी कभी भी हमको सस्ती नहीं लगती।






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